भूमिका:
आज भारत में कई लोग यह कहते पाए जाते हैं की प्राचीन भारत में भारतियों के पास विज्ञान का कोई ज्ञान नहीं था, भारतीय सिर्फ पूजा-पाठ और ढोंग-आडम्बरों में फंसे रहते थे एवं उन्हें विज्ञान की कोई समझ नहीं थी | कई लोग यहाँ तक कह देते हैं की भारत में विज्ञान का ज्ञान अंग्रेजों के आने से आया उसके पहले इन्हें कोई ज्ञान नहीं था | कई तथाकथित अंग्रेजी पड़े लिखे बुद्धिजीवियों का यह भी मानना है की भारतीय शास्त्रों और पुस्तकों में सिर्फ पूजा पाठ की विधियाँ और पौराणिक दन्त कथाएं हैं जो किसी काम की नहीं हैं | इन्ही सब बातो को सुनने के बाद मैंने खोजना शुरू किया की भारत में सच में कोई विज्ञान था या नहीं तब गहराई से खोजने पर भारत के प्राचीन विज्ञान की कई अद्भुत जानकारियाँ एक के बाद एक मिलती चली गयीं | वैसे तो भारत में नौका विज्ञान, वस्त्र विज्ञान, विमान शास्त्र, इत्यादि कई तरह के विज्ञान की जानकारी एवं पुस्तकें मौजूद हैं पर इस लेख में भारत के प्राचीन रसायन शास्त्र के विषय में कुछ तथ्य रखे जा रहे हैं जिससे आज के युवाओं को यह पता चल सके की भारत के प्राचीन विज्ञान में रसायन शास्त्र की क्या भूमिका थी |
भारत में रसायन शास्त्र की अति प्राचीन परंपरा रही है। पुरातन ग्रंथों में धातुओं, अयस्कों, उनकी खदानों, यौगिकों तथा मिश्र धातुओं की अद्भुत जानकारी उपलब्ध है। इन्हीं में रासायनिक क्रियाओं में प्रयुक्त होने वाले सैकड़ों उपकरणों के भी विवरण मिलते हैं। रसायन शास्त्र जिसे हम आज की भाषा में ‘केमिस्ट्री’ कहते हैं, इसका ज्ञान प्राचीन काल से भारत में पाया जाता है | पूर्व काल में अनेक रसायनज्ञ हुए, उनमें से कुछ की कृतियों निम्नानुसार हैं :-
रस रत्न समुच्चय ग्रंथ में मुख्य रस माने गए निम्न रसायनों का उल्लेख किया गया है-
(१) महारस (२) उपरस (३) सामान्यरस (४) रत्न (५) धातु (६) विष (७) क्षार (८) अम्ल (९) लवण (१०) लौहभस्म।
इसी प्रकार १० से अधिक विषों का वर्णन भारतीय रसायन शास्त्र में किया गया है |
प्राचीन समय में प्रयोगशाला का अस्तित्व:
‘रस-रत्न-समुच्चय‘ अध्याय ७ में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है। इसमें ३२ से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य हैं-
(१) दोल यंत्र (२) स्वेदनी यंत्र (३) पाटन यंत्र (४) अधस्पदन यंत्र (५) ढेकी यंत्र (६) बालुक यंत्र (७) तिर्यक् पाटन यंत्र (८) विद्याधर यंत्र (९) धूप यंत्र (१०) कोष्ठि यंत्र (११) कच्छप यंत्र (१२) डमरू यंत्र।
किसी भी देश में किसी ज्ञान विशेष की परंपरा के उद्भव और विकास के अध्ययन के लिए विद्वानों को तीन प्रकार के प्रमाणों पर निर्भर करना पड़ता है
प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किए। विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं। अपने ग्रंथों में नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं का मिश्रण तैयार करने, पारा तथा अन्य धातुओं का शोधन करने, महारसों का शोधन तथा विभिन्न धातुओं को स्वर्ण या रजत में परिवर्तित करने की विधि दी है। पारे के प्रयोग से न केवल धातु परिवर्तन किया जाता था अपितु शरीर को निरोगी बनाने और दीर्घायुष्य के लिए उसका प्रयोग होता था। भारत में पारद आश्रित रसविद्या अपने पूर्ण विकसित रूप में स्त्री-पुरुष प्रतीकवाद से जुड़ी है। पारे को शिव तत्व तथा गन्धक को पार्वती तत्व माना गया और इन दोनों के हिंगुल के साथ जुड़ने पर जो द्रव्य उत्पन्न हुआ, उसे रससिन्दूर कहा गया, जो आयुष्य-वर्धक सार के रूप में माना गया।
इन ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि रस-शास्त्री धातुओं और खनिजों के हानिकारक गुणों को दूर कर, उनका आन्तरिक उपयोग करने हेतु तथा उन्हें पूर्णत: योग्य बनाने हेतु विविध शुद्धिकरण की प्रक्रियाएं करते थे। उसमें पारे को अठारह संस्कार यानी शुद्धिकरण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। इन प्रक्रियाओं में औषधि गुणयुक्त वनस्पतियों के रस और काषाय के साथ पारे का घर्षण करना और गन्धक, अभ्रक तथा कुछ क्षार पदार्थों के साथ पारे का संयोजन करना प्रमुख है। रसवादी यह मानते हैं कि क्रमश: सत्रह शुद्धिकरण प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद पारे में रूपान्तरण (स्वर्ण या रजत के रूप में) की सभी शक्तियों का परीक्षण करना चाहिए। यदि परीक्षण में ठीक निकले तो उसको अठारहवीं शुद्धिकरण की प्रक्रिया में लगाना चाहिए। इसके द्वारा पारे में कायाकल्प की योग्यता आ जाती है। इस तरह भारत में धातुओं के भी इलाज की अनेक विधियाँ मौजूद थीं |
भारत में रसायन शास्त्र का इतिहास :
किसी भी देश में किसी ज्ञान विशेष की परंपरा के उद्भव और विकास के अध्ययन के लिए विद्वानों को तीन प्रकार के प्रमाणों पर निर्भर करना पड़ता है-
अतः भारत में रसायनशास्त्र के शुरूआती इतिहास के निर्धारण के लिए विशाल संस्कृत साहित्य को खोजना ही उत्तम जान पड़ता है। उल्लेखनीय है कि भारत में किसी भी प्रकार के ज्ञान के प्राचीनतम स्रोत के रूप में वेदों को माना जाता है। इनमें भी ऐसा समझा जाता है कि ऋग्वेद सर्वाधिक प्राचीन है। अर्वाचीन काल में ईसा की अठारहवीं शताब्दी से नये-नये तत्वों की खोज का सिलसिला प्रारंभ हुआ। इसके पूर्व केवल सात धातुओं का ज्ञान मानवता को था। ये हैं-स्वर्ण, रजत, तांबा, लोहा, टिन, लेड (सीसा) और पारद। इन सभी धातुओं का उल्लेख प्राचीनतम संस्कृत साहित्य में उपलब्ध है, जिनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद भी सम्मिलित हैं। वेदों की प्राचीनता ईसा से हजारों वर्ष पूर्व निर्धारित की गई है। इस प्रकार वेदों में धातुओं के वर्णन के आधार पर हम भारत में रसायन शास्त्र का प्रारंभ ईसा से हजारों वर्ष पूर्व मान सकते हैं।
इसी तरह वैदिक काल के पश्चात् विश्व प्रसिद्ध चरक एवं सुश्रुत संहिताओं में भी औषधीय प्रयोगों के लिए पारद, जस्ता, तांबा आदि धातुओं एवं उनकी मिश्र धातुओं को शुद्ध रूप में प्राप्त करने तथा सहस्त्रों औषधियों के विरचन में व्यवहृत रासायनिक प्रक्रियाओं यथा-द्रवण, आसवन, उर्ध्वपातन आदि का विस्तृत एवं युक्तियुक्त वर्णन मिलता है। नि:संदेह इस प्रकार के ज्ञानार्जन का प्रारंभ तो निश्चित रूप से इसके बहुत पहले से ही हुआ होगा। उल्लेखनीय है कि इन ग्रंथों के लेखन के पश्चात, यद्यपि इसी काल में (ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी) में कौटिल्य (चाणक्य) ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र‘ की रचना की जिसमें धातु, अयस्कों, खनिजों एवं मिश्र धातुओं से संबंधित अत्यंत सटीक जानकारी तथा उनके खनन, विरचन, खानों के प्रबंधन तथा धातुकर्म की आश्चर्यजनक व्याख्या मिलती है। भारत में इस प्रकार के वैज्ञानिक ज्ञान का यह ग्रंथ प्राचीनतम उदाहरण प्रस्तुत करता है। प्रथम सहस्राब्दी की दूसरी शताब्दी से १२वीं शताब्दी तक तो ऐसी पुस्तकों की भरमार देखने को मिलती है जो शुद्ध रूप से केवल रसायन शास्त्र पर आधारित हैं और जिनमें रासायनिक क्रियाओं, प्रक्रियाओं का सांगोपांग वर्णन है। इनमें खनिज, अयस्क, धातुकर्म, मिश्र धातु विरचन, उत्प्रेरक, सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक रसायन तथा उनमें काम आने वाले सैकड़ों उपकरणों आदि का अत्यंत गंभीर विवरण प्राप्त होता है।
भारतीय इस्पात की गुणवत्ता इतनी अधिक थी कि उनसे बनी तलवारों के फारस आदि देशों तक निर्यात किये जाने के ऐतिहासिक प्रमाण मिले हैं।
द्वितीय शताब्दी में नागार्जुन द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘रस रत्नाकार‘ को लें। ऐसा विश्वास किया जाता है कि छठी शताब्दी में जन्मे इसी नाम के एक बौद्ध रसायनज्ञ ने इस पुस्तक का पुनरावलोकन किया। इसीलिए यह पुस्तक दो रूपों में उपलब्ध है। कुछ भी हो, यह पुस्तक अपने में रसायन का तत्कालीन अथाह ज्ञान समेटे हुए हैं। छठी शताब्दी में ही वराहमिहिर ने अपनी ‘वृहत् संहिता‘ में अस्त्र-शस्त्रों को बनाने के लिए अत्यंत उच्च कोटि के इस्पात के निर्माण की विधि का वर्णन किया है। भारतीय इस्पात की गुणवत्ता इतनी अधिक थी कि उनसे बनी तलवारों के फारस आदि देशों तक निर्यात किये जाने के ऐतिहासिक प्रमाण मिले हैं।
ऐसे ही आठवीं शताब्दी से १२वीं शताब्दी के मध्य वाग्भट्ट की अष्टांग हृदय, गोविंद भगवत्पाद की रस हृदयतंत्र एवं रसार्णव, सोमदेव की रसार्णवकल्प एवं रसेंद्र चूणामणि तथा गोपालभट्ट की रसेंद्रसार संग्रह तथा अन्य पुस्तकों में रसकल्प, रसरत्नसमुच्चय, रसजलनिधि, रसप्रकाश सुधाकर, रसेंद्रकल्पद्रुम, रसप्रदीप तथा रसमंगल आदि की रचनाएँ भारत में की गयी |
१८०० में भी भारत में, व्रिटिश दस्तावेजों के अनुसार, विभिन्न धातुओं को प्राप्त करने के लिए लगभग २०,००० भट्ठियां काम करती थीं जिनमें से दस हजार तो केवल लौह निर्माण भट्ठियां थीं और उनमें ८०,००० कर्मी कार्यरत थे। इस्पात उत्पाद की गुणवत्ता तत्कालीन अत्युत्तम समझे जाने वाले स्वीडन के इस्पात से भी अधिक थी। इसके गवाह रहे हैं सागर के तत्कालीन सिक्का निर्माण कारखाने के अंग्रेज प्रबंधक कैप्टन प्रेसग्रेन तथा एक अन्य अंग्रेज मेजर जेम्स फ्रेंकलिन । उसी समय तथा उसके काफी बाद तक लोहे के अतिरिक्त रसायन आधारित कई अन्य वस्तुएं यथा-साबुन, बारूद, नील, स्याही, गंधक, तांबा, जस्ता आदि भी भारतीय तकनीकी से तैयार की जा रही थीं। काफी बाद में अंग्रेजी शासन के दौरान पश्चिमी तकनीकी के आगमन के साथ भारतीय तकनीकी विस्मृत कर दी गई।
उपसंहार :
यह सिर्फ चंद उदाहरण हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है की भारत में हजारों वर्षों से रासायनिक विज्ञान की अद्भुत परंपरा रही है | विदेशी आक्रान्ताओं के हमलों तथा गुलामी के दौर में संस्कृत के साहित्य को नष्ट करने के कारण यह परंपरा कम होतो चली गयी | आज जरुरत है आधुनिक विज्ञान के कुछ लोगों को साथ में लेकर संस्कृत के पुराने ग्रंथों का अध्ययन किया जाए तथा उनसे सीखकर भारत की जल-वायु एवं प्रकृति के अनुसार रसायन विज्ञान एवं आयुर्वेद के शोध को बढ़ावा दिया जाए | भारत का बेशकीमती विज्ञान तथा अद्भुत ज्ञान आज संस्कृत तथा भारतीय ग्रंथों की अनदेखी के कारण प्राचीन पुस्तकालयों में धूल खा रहा है | आशा है की भारत सरकार इसकी तरफ ध्यान देगी तथा इसे पुनर्जीवित करने के लिए समिति का गठन करेगी | आज के युग में जितना आधुनिक होना आवश्यक है उतना ही प्राचीन ज्ञान की रक्षा करना भी आवश्यक है क्योंकि जो समाज नवीनीकरण की आंधी में प्राचीन ज्ञान की रक्षा नहीं करते उन्हें भविष्य में कई साल दोबारा उसी ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बर्बाद करने पढ़ते हैं |
Note:
1. The views expressed here are those of the author and do not necessarily represent or reflect the views of PGurus.
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