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अंग्रेज तो चले गए मगर अंग्रेजियत हटानी जरुरी है |

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हम भारतियों ने आज दुनिया भर में कई मंदिर, गिरिजाघर, मठ इत्यादि स्थापित कर दिए हैं | मगर यह सभी के सभी एक दिन संग्रहालय या घूमने फिरने की जगह मात्र बनकर रह जायेंगे क्योंकि हम मंदिर बनाना , पुस्तके छापना इत्यादि तो कर रहे हैं मगर अपने बच्चों तथा आने वाली पीड़ियों को अपने धर्म तथा संस्कृति के बारे में नहीं सिखा रहे हैं | अफसोसजनक बात यह है की आज हम लोग पार्टियों , शौपिंग मॉलों, फिल्मो तथा कई अलग – अलग साज सज्जा के कार्यक्रमों में तो लाखों रुपया उड़ा देते हैं मगर अपने धर्म और उसमे छुपे विज्ञान को जानने में बिलकुल भी समय तथा धन खर्चा नहीं करते | इसके कारण आज हमारे धर्म की पढ़ाई एवं उच्च शिक्षा दोनों ही विदेशियों के हाथों में चली गयी है | हमारा इतिहास , धर्म तथा सामाजिक विज्ञान हमें विदेशियों की किताबों से तथा उनके नज़रिए से पढना पढता है |

भारतीय शिक्षा या भारत के विषय में शिक्षा पूरी तरह से आज पश्चिम के प्रभाव में चली गयी है जो हमारी शिक्षा व्यवस्था के द्वारा हमारे छात्रों के दिमाग पर भी काबू करते जा रहे हैं | यह पश्चिमी बुद्धिजीवी और उनके भारतीय मानस पुत्र सभी लोगों को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ तथा ‘बोलने की आज़ादी’ का ज्ञान बांटते हैं मगर यह स्वयं सबसे अधिक पुस्तक प्रकाशन संस्थान, मीडिया संस्थानों, अख़बारों तथा इंटरनेट चर्चा समूहों और बड़े विश्वविध्यालयो पर कब्ज़ा किये रहते हैं  | यही नहीं इनके विचार के विपरीत बोलने वालों को यह झुण्ड बनाकर बुरी तरह से बेईज्ज़त करते हैं तथा उनपर सांप्रदायिक, भावुक या मुर्ख होने का तमगा लगा देते हैं | यदि यह इलीट पश्चिमी सोच के बुद्धिजीवी सच में ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ के समर्थक होते तो यह अपने से अलग विचार के लोगों से खुले में परिचर्चा या वाद विवाद करने को राजी होते मगर यह इसके लिए कभी तैयार नहीं होते तथा अपनी अधिकतर चर्चाएँ बंद कमरों में अपने ही लोगों के बीच करते हैं  क्योंकि इनके पास लोगों के सवालों के जवाब देने लायक तथ्य नहीं होते | कई बार तो सिर्फ भारत के कानून को नीचा दिखाने के लिए यह वर्ग मानवाधिकार के नाम पर आतंकवादियों तक का समर्थन करने से नहीं चूकता है |

पश्चिमी भारतविद विल्हेम हल्बफास लिखते हैं :

“आधुनिक समय की स्थिति में पूर्वी और पश्चिमी संस्कृतियांएक दूसरे से समान साझेदार के रूप में नहीं मिल सकतीं वे एक पाश्चात्य दुनिया में मिलते हैं, जहाँ परिस्थितियां पश्चिम के द्वारा तय की जाती हैं[i]

पश्चिम की सोच हर चीज में यही रही है की कोई भी आविष्कार या ख़ोज तब आविष्कार या खोज माना जाएगा जब पश्चिम इसे मान्यता देदे |

आज कई अमेरिकी और ब्रिटिश संस्थान हमारे देश के अंग्रेजी पड़े लिखे शोधकर्ताओं को पश्चिमी विचार के अनुसार शोध करने के लिए बहुत पैसा बाँट रहे हैं ताकि वो उन्ही के काबू में बने रहें |   पहले भी अंग्रेजों ने देश को आपस में बांटने के लिए इन्ही तकनीकों का प्रयोग किया था | इसी तरह का एक प्रयोग था ब्रिटिश सेन्सस जिसमे अंग्रेजों ने भारत के लोगों को विभिन्न श्रेणियों में बाँट दिया था, जिसका परिणाम देश आज तक भुगत रहा है |

त्ज़्टेन टोडोरोव ने ऐतिहासिक रूप से एंथ्रोपोलॉजी का अध्ययन करते हुए “नया ट्रिनिटी” शब्द का इस्तेमाल किया है | यह कहते हैं :

“प्राचीन समय में सैनिक तीन रूपों में आते थे: इसमें विद्वान, पुजारी और एक व्यापारी शामिल हैं”: विद्वान देश के बारे में जानकारी एकत्र करता है, पुजारी अपना पंथ फैलाता जाता है और व्यापारी मुनाफा बनाता है |[ii]

यही भारत में हुआ है | पश्चिम के अन्थ्रोपोलोगिस्ट और इतिहासकारों ने हमारे गरीब लोगों और शोधकर्ताओं से देश का डाटा इकठ्ठा करवाया और उसे पश्च्चिमी नज़रिए से ढाल कर हमारे ही सामने पेश कर दिया | इससे समाज में विभाजन और बढ़ता चला गया तथा पश्चिम को उनका पंथ फैलाने का मौका मिल गया | इन्होने ना सिर्फ हमारे प्राचीन ज्ञान को गलत तरीके से हमें पढाया बल्कि बहुत सारा ज्ञान यहाँ से चोरी करके अपने नाम से दुनिया में प्रचारित किया | इस तरह इन्होने हमारे ‘निद्रा योग’, ‘विपस्सना’, ‘कत्थककलि’ इत्यादि को इसाई नामो से अपना बताने का क्रम शुरू कर दिया है | यही नहीं प्राचीन समय में भी इन्होने फिजिक्स, एस्ट्रोलॉजी, अध्यात्म, गणित, नौका शास्त्र, सर्जरी इत्यादि को भारत के ज्ञान भंडार से चुरा कर अपने नाम से दुनिया में प्रचारित किया है | आश्चर्य की बात यह है की सारी दुनिया को सोर्स, रिफरेन्स का ज्ञान बाँटने वाले अंग्रेजों ने भारत से चुराई वस्तुओं या ज्ञान के लिए कभी भी भारत का नाम आगे नहीं किया |

यूरोप के लोगों ने ऐसा ही अमेरिका के साथ किया था | इनके वहां पहुचने से पहले अमेरिका में ‘रेड इंडियन्स’ की मूल जनसँख्या हुआ करती थी, जिन्हें कोलंबस द्वारा वहां पहुचने के बाद बहुत हद तक समाप्त कर दिया गया | इसके बाद दुनियाभर को यह पढाया गया की अमेरिका की खोज १९९२ में कोलंबस ने की है | यह सिर्फ इसलिए क्योंकि यूरोप के दस्तावेजो में यह तब दर्ज हुआ था | यूरोप के सामाजिक जीवन में और सभ्यता में कई बड़े बदलाब भारत और एशिया के देशों के साथ जुड़ने से आये पर इन्होने इन सभी सभ्यताओं को हमेशा अपने इतिहास में खुद से नीचा दिखाया |[iii] पश्चिम की सोच हर चीज में यही रही है की कोई भी आविष्कार या ख़ोज तब आविष्कार या खोज माना जाएगा जब पश्चिम इसे मान्यता देदे | यह नस्लवाद का चरम उदाहरण है क्योंकि बाकी दुनिया को यह स्वयं से नीचा मानते हैं  |

मेकाले ने भारत की शिक्षा पद्दति बनाते समय यही कल्पना की थी की इस अंग्रेजी शिक्षा को पढ़कर भारत से सिर्फ चपरासी और चापलूस ही निकले |

आज भारतीय दुनियाभर में विज्ञान, बैंकिंग, हेल्थ इत्यादि कई क्षेत्रों में बड़े बड़े पदों पर आसीन हैं | मगर इंडोलोजी अर्थात ‘भारत के विषय में शिक्षा’ आज भी पूरी तरह से विदेशियों के कब्जे में हैं | आज भी शेल्डन पोलक या विंडी ड़ोनिगेर जैसे विदेशी हमें बताते हैं की भारत की संस्कृति कैसी थी या भारत में जातिवाद था, सती प्रथा थी , सभी प्रकार की सामाजिक बुराइयां थी जिससे यह हमारे छात्रों के मन में भारतीय संस्कृति के विषय में जहर बोते चले  जा रहे हैं | अंग्रेजों के समय मेकाले ने भारत की शिक्षा पद्दति बनाते समय यही कल्पना की थी की इस अंग्रेजी शिक्षा को पढ़कर भारत से सिर्फ चपरासी और चापलूस ही निकले जिन्हें अपनी संस्कृति तथा गौरवमयी अतीत का कोई ज्ञान ना हो | आज यह सत्य होता प्रतीत हो रहा है | इस शिक्षा पद्दति को पढ़कर कई युवा आज अपनी ही संस्कृति और परम्पराओं से कटते जा रहे हैं तथा इन्हें रुडिवाद और पिछड़ा कहकर खुदको विदेशी दिखाने की होड़ में लगे हुए हैं |

इन अंग्रेजी शिक्षा में पढ़े लिखे भारतियों को सिर्फ पश्चिमी नज़रिए से भारत के विषय में पता है जिसका परिणाम यह निकल रहा है की यह भारतीय ज्ञान, संस्कृति, परंपरा, इतिहास, दर्शन इत्यादि को नकार रहे हैं तथा पिछड़ा मान कर सीख ही नहीं रहे हैं | यही नहीं जो भारत या भारतीय संस्कृति की बात कर दे उसे यह भगुआवादी , संघी , हिन्दू आतंकी , बीजेपी समर्थक , फासीवादी, नाज़ी इत्यादि नामो से नवाजने में देर नहीं करते| जिसके कारण कई छात्र जो देश और संस्कृति के विषय में बोलना भी चाहते हैं वो चुप रह जाते हैं |

यही काले अंग्रेज जो विदेशी पद्दति से भारत के विषय में पढ़े हैं यह नए युवाओं के दिमाग को भी उसी तरह भ्रमित करने में लगे हुए हैं जैसे उनका दिमाग अंग्रेजो ने बदल दिया था | आज विश्वविद्यालयों में छात्रों को यह बताया जा रहा है की दुनिया का हर अच्छा या वैज्ञानिक सिद्धांत पश्चिम द्वारा दिया गया है | आधे से ज्यादा चीजों को प्लेटो, सुकरात या अरस्तु ने रचा है | अंग्रेजी लिटरेचर में सिसेरो, शेक्सपियर , जुलियस सीसर पढाये जाते हैं | ‘कालिदास’ को ‘शेक्सपियर ऑफ़ इंडिया’ बताया जाता है जबकि कालिदास उससे बहुत पहले के हैं | बोधायन प्रमेय को प्य्थोगोरस प्रमेय पढाया जाता है | कौटिल्य अर्थशास्त्र की जगह मेकिआवेली और कार्ल मार्क्स पढाये जाते हैं | पूरी पद्दति पश्चिम के अनुसार रच दी गयी है |

जबकि हमारे यहाँ भी आर्यभट , भास्कराचार्य आदि ने गणित और खगोलशास्त्र के कई नियम दिए हैं | पाणिनि , पतंजलि , अगस्त्य के कई सिद्धांत ग्रामर और भौतिकी में काम आ सकते हैं | तथा उपनिषदों तथा ६ दर्शनों को दर्शन शास्त्र में पढाया जा सकता है | मगर इंडोलोजी तथा भारतीय उच्च शिक्षा इस तरह पश्चिम तंत्र के चंगुल में फंसी है की उसे आज़ाद करवाने के लिए सभी भारतियों को ही आगे आना होगा | आज टॉप लेवल के सभी पब्लिशिंग हाउस , अकादमिक जर्नल इत्यादि विदेशियों के हाथों में हैं या उन्ही की फंडिंग से चल रहे हैं जिसके कारण अधिकतर शोध इनकी विचारधारा से ही प्रभावित होते हैं | यही नहीं अधिकतर उच्च सिक्षा अंग्रेजी माध्यम में होने के कारण कई होनहार छात्रों का भविष्य बर्बाद हो जाता है तथा अंग्रेजी सीखने के चक्कर में मौलिकता और तर्क कहीं पीछे छूट जाते हैं | इसीके साथ भारतीय भाषाओँ का उच्च शिक्षा एवं रोजगार से ना जुड़ा होने के कारण भी कई भारतीय भाषाएँ समाप्त होती चली जा रही हैं |

कभी संस्कृत को निशाना बनाया जाता है, कभी मनुस्मृति, कभी हिन्दू त्यौहार तो कभी भारतीय इतिहास के साथ छेड़ छाड़ की जाती है |

इसी तरह आज कई वामपंथी शोधकर्ता और प्रोफेसर अपने आपको वामपंथी और नास्तिक साबित करने के लिए हिन्दुओ और भारत की संस्कृति को दिन रात बुरा भला कहने में लगे रहते हैं जिससे चीन , रूस और अमेरिका में बैठे उनके आकाओं से उन्हें मोटे धन की प्राप्ति हो सके | इसी कारण कभी संस्कृत को निशाना बनाया जाता है, कभी मनुस्मृति, कभी हिन्दू त्यौहार तो कभी भारतीय इतिहास के साथ छेड़ छाड़ की जाती है | शायद यही कारण है की हैदराबाद विश्वविध्यालय में याकूब मेनन के समर्थन में रैलियाँ निकलती है , तो दिल्ली विश्वविध्यालय में अफज़ल गुरु के समर्थन में , इसी तरह जे.एन.यू. में कभी महिषासुर दिवस मनाया जाता है कभी शहीदों को अपमानित किया जाता है तो कभी ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारे लगते हैं |

भारत के मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय को भारतीय उच्च शिक्षा एवं भारत के विषय में शिक्षा के विषय में एक नया पाठ्यक्रम जल्द से जल्द तैयार करने की आवश्यकता है, क्योंकि यदि यही हाल रहा तो देश के युवा अपने ही देश के खिलाफ हीन भावना से ग्रसित हो जायेंगे और इससे अलगाववाद और माओवाद को ही बढ़ावा मिलेगा ,तथा हम जिन युवाओं के दम पर दुनिया में भारत को विश्वगुरु बनाने का सपना देख रहे हैं, वही देश के लिए सबसे हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं | हमने अंग्रेजों को देश से तो निकाल दिया मगर अंग्रेजियत अभी तक अपने पैर देश की शिक्षा व्यवस्था और प्रशासनिक तंत्र पर जमाये बैठी है | जब तक इस अंग्रेजियत को देश से हटाकर उसके स्थान पर स्वदेशी शिक्षा तंत्र को स्थापित नहीं किया जाएगा तब तक भारत की असल मायने में तरक्की संभव नहीं है |

[i] W. Halbfass,  India and Europe, first edition, (Delhi: MLBD), 44.

[ii] Tzvetan Todorov, The conquest of America,175.

[iii] J.J. Clark’s book Oriental Enlightenment.

Shubham Verma

Shubham Verma is a Researcher and writer based in New Delhi. He has an experience of 10 years in the field of Social work and Community development.

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  • Sir I like your article u give a meaning ful knowledge to young generation. I want to know more about swadeshi yuva swabhiman

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