हिन्दू और बौद्ध अलग धर्म नहीं हैं – भाग १

तथ्यात्मक विश्लेषण पर दो भाग श्रृंखला के भाग १

हिन्दू और बौद्ध धर्म
हिन्दू और बौद्ध अलग धर्म नहीं हैं

बौद्ध सिद्धांत वैदिक धर्म के विरुद्ध नहीं था बल्कि असल में यह वैदिक धर्म के ही खो रहे मूल्यों को पुनःस्थापित करने का एक प्रयास था

आज भारत में तथा कई देशों में नव-बौद्ध नामक एक भ्रामक आन्दोलन चल रहा है | इसका प्रचार प्रसार करने वालों का निशाना पिछड़े तथा दलित वर्ग के लोग होते हैं | इन्हें पैसे तथा दूसरे लालच देकर बौद्ध बनाया जाता है तथा इसके लिए शर्त यह होती है के हिन्दू धर्म ( प्राचीन सनातन या वैदिक धर्म ) तथा संस्कृति को पूर्ण रूप से त्यागना होगा | यही नहीं इनके मन में प्राचीन भारतीय वैदिक संस्कृति के प्रति नफरत का जहर भरा जाता है | इसके लिए हिन्दू धर्म (वैदिक) को बदनाम करने का पूरा साहित्य तैयार किया गया है जिसमे कभी शम्भूक की झूठी कथा सुनाई जाती है तो कभी महिषासुर की | इन सब कथाओं को सुनाने और बनाने का मकसद है वैदिक धर्म को शुद्र विरोधी बताना | यह लोग सभी राक्षसों को शुद्र बताकर तथा भगवानो को आर्य तथा ऊँची जाती का बताकर समाज में वैमनस्य फैलाते हैं तथा इसी आधार पर फिर दलितों से हिन्दू धर्म को छुडवा देते हैं |

आश्चर्य की बात यह है के दक्षिण भारत में यही कहानियां सुनाकर राक्षसों को द्रविड़ बताते हैं | इन्होने महिलाओं को भी अपनी ओर आकर्षित करने तथा वैदिक संस्कृति से अलग करने के लिए महाभारत में द्रोपदी तथा रामायण में सीता आदि की कथाओं को फेमिनिस्म का रूप देकर इस तरह से लिखा है जिससे यह लगे के भारतीय संस्कृति तो महिला विरोधी थी तथा इसे त्यागकर ही मुक्ति पायी जा सकती है | इस तरह के कई झूठ तथा प्रपंच यह लोग फैला रहे हैं |[i]

भारत में भी नव-बौद्ध के नाम से दलित वर्ग को अपने ही समाज के खिलाफ भ्रामक साहित्य बाँट कर भड़काया जा रहा है |

राजीव मल्होत्रा अपनी पुस्तक ब्रेकिंग इंडिया में लिखते हैं के इस तरह के आन्दोलनों के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ है जो नहीं चाहते के भारत तरक्की करे तथा उनके स्तर पर आकर खड़ा हो जाए अतः वह एन.जी.ओ. , शिक्षा तथा मीडिया के माध्यम से समाज को तोड़ने के लिए इस तरह के आन्दोलनों को हवा दे रहे हैं | इसी तरह के कई अलगाववादी आन्दोलन सीरिया, लीबिया, मिस्त्र, इराक, आदि में भी चले थे जिनका नतीजा यह देश अब तक भुगत रहे हैं | महाशक्ति सोवियत रूस भी अलगाववादी आन्दोलनों से ही टुकड़े टुकड़े हो गया था | भारत में भी नव-बौद्ध के नाम से दलित वर्ग को अपने ही समाज के खिलाफ भ्रामक साहित्य बाँट कर भड़काया जा रहा है | इसकी कई वेबसाइट तथा फेसबुक पेज आदि इन्टरनेट पर भरे पढ़े हैं | इन्होने कई ऐसी बाते भारतीय साहित्य के विषय में लिख दी हैं जिनसे समाज में विघटन की स्थिति पैदा होने लगी है तथा हीन भावना पैदा हो रही है | इसके कुछ तर्कों के उदाहरण निम्लिखित हैं | यह कहते हैं के :

  1. बुद्ध ने वैदिक धर्म से परेशान होकर अलग धर्म बनाया था |
  2. जाती प्रथा से तंग आकर बुद्ध ने वैदिक धर्म छोड़ा था तथा उनकी पूरी लडाई वर्ण व्यवस्था के खिलाफ थी |
  3. संस्कृत भाषा पर सिर्फ ब्राह्मणों का कब्ज़ा था | अतः बुद्ध ने पाली में साहित्य लिखा | बाद में विदेशियों (हुण-कुषाण) के आने से और बौद्ध धर्म के आने के बाद लेखन की शुरुआत हुई |[ii]
  4. संस्कृत तथा वैदिक धर्म में पहले सिर्फ कर्मकांड थे इसमें ज्ञान वर्धक चीजे जैसे काव्य, नाटक आदि बौद्धों के संस्कृत जानने के बाद में जुड़े |
  5. रामायण बुद्ध के बाद “दशरथ जातक” से देख कर लिखी गयी |
  6. बुद्ध से पहले वैदिक धर्म सामाजिक बंधनो पर आधारित था | इसके साहित्य में सिर्फ यज्ञ करवाना आदि था |

पहले तर्क पर चूँकि ऊपर इसी शोधपत्र में काफी कुछ लिखा जा चूका है अतः मै कुछ और विद्वानों के उदाहरण देना चाहूँगा | आनंद कुमारस्वामी अपनी पुस्तक हिंदूइस्म एंड बुद्धिज़्म में लिखते हैं के :

“जो ऊपरी तौर पर किताबी ज्ञान के आधार पर बौद्ध सिद्धांत को पढता है | वह यह बोल सकता है के ब्राह्मणवाद और बौद्धवाद दो अलग अलग धर्म हैं मगर जिसने बुद्ध सिद्धांत तथा हिन्दू धर्म का गहन अध्ययन किया है वो कभी यह नहीं बोल सकता के यह दोनों अलग अलग हैं | बुद्ध का अधिकतर ज्ञान तथा प्रवचन ब्राह्मणों तथा उनके छात्रों ने ही सुना था | मगर यह कभी भी “जाती” के विरुद्ध या सामाजिक सुधार के लिए या आन्दोलन के रूप में नहीं था | यह वैदिक धर्म के विरुद्ध नहीं था बल्कि असल में यह वैदिक धर्म के ही खो रहे मूल्यों को पुनःस्थापित करने का एक प्रयास था |”[iii]

दूसरे तर्क पर राजीव मल्होत्रा अपनी पुस्तक द बैटल फॉर संस्कृत” में लिखते हैं के –

“बुद्ध धर्म वर्ण/जाती के खिलाफ एक आन्दोलन था | ऐसा कुछ भी बुद्ध के असली पौराणिक साहित्य में नहीं मिलता बल्कि बुद्ध ने दुःख को दूर करने के लिए जो ४ आर्य सत्य तथा ८ आर्य अष्टांग मार्ग दिए हैं , उनमे कहीं भी जाती प्रथा या वर्ण व्यवस्था की चर्चा नहीं है | भारत के इतिहास में भी ऐसी कोई चर्चा नहीं है के किसी जाती ने बुद्ध धर्म को अपनाकर अपना वर्ण या जाती छोड़ दी हो | ना ही ऐसा कुछ कही है के बुद्ध ने जाती/वर्ण छोड़ने का कहा है, ना ही ब्राह्मण जाती के त्याग की बात कहीं मिलती हैं | ऐसा कुछ भी ना तो भारत के प्राचीन साहित्य और इतिहास में है तथा ना ही किसी चीनी यात्री ने किसी सामाजिक/ जातिगत आधारित आन्दोलन के विषय में ऐंसा कुछ लिखा है |”[iv]

आगे जारी किया जायेगा….

[i] http://koenraadelst.bharatvani.org/books/wiah/ch11.htm

[ii] Pollock 2006:52.

[iii] Ananda Coomaraswamy. Hinduism and Buddhism

[iv] Rajiv Malhotra.The Battle For Sanskrit.pp. 128-129.

Note:
1. Text in Blue points to additional data on the topic.
2. The views expressed here are those of the author and do not necessarily represent or reflect the views of PGurus.

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Researcher and Writer at Think tank
Shubham Verma is a Researcher and writer based in New Delhi. He has an experience of 10 years in the field of Social work and Community development.
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2 COMMENTS

  1. अगर आप मानते है सब एक है तो ब्राह्मणों का व्यवहार दलितों के साथ दुजाभव का वैमनस्य का क्यों रहा और है आज भी

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