कठुआ की विकराल समस्या!

महबूबा मुफ्ती को न्यायालय में यह कबूलना होगा कि उनका प्रशासन जम्मू कश्मीर में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष सुनवाई कराने में असमर्थ है।

कठुआ की विकराल समस्या!
कठुआ की विकराल समस्या!

महबूबा मुफ्ती, जिन्होंने मामले पर नज़दीकी से नज़र रखी और जिन्हें जांचकर्ताओं को बदले जाने, ताकि निर्णय को अपने हिसाब से लाया जा सके, के बारे में भी जानकारी थी, अब संकट में हैं।

कठुआ, जम्मू में एक मासूम बच्ची के बलात्कार को लेकरलुटियंस प्रतिभाओंमें मानो जैसेखुशीका माहौल छा गया है। वे इस मामले सेराजनीतिक लाभउठाने से बाज नहीं आये औरसंयुक्त राष्ट्र संघसे भी समर्थन जुटाने का प्रयत्न कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान को डिक्सन या अन्य सूत्र के अंतर्गत भेंट करने का इच्छुक है।

1947 के बाद पहली बार ऐसा हो रहा है जब जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री से अनुमती देने को कहा जा रहा है, ना कि किसी केंद्रीय कानून को राज्य में लागू करने को लेकर, बल्कि राज्य के अधिकार किसी दूसरे राज्य के न्यायालय को समर्पित करने को कहा गया है!

आदर्श न्याय का झांसा देकर यह लोग मामले को चंडीगढ़ न्यायालय में ले जाने की मांग कर रहे हैं ये कह कर कि कठुआ केसत्र न्यायालयमें न्याय नहीं किया जायेगा। इन्होंने मुख्यमंत्रीमहबूबा मुफ्तीके लिएराजनीतिक एवँ कानूनी समस्याखड़ी कर दी है। यह आरोपबेबुनियादहै परंतु इनके चाल चलन बिल्कुल गुजरात दंगों के दौरान किए गए षणयंत्र की तरह ही है, जब इन एनजीओ ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर मुकदमों कोमुंबईउच्च न्यायालय मेंतबादलाकारवाया था। अब यही फिर से दौहराया जा रहा है।

समस्या यह है कि बात जम्मू और कश्मीर की है जिसे भारत से दूर रखता है आर्टिकल 370 (क्या पंडित नेहरू के इसअभिशापसे कभी मुक्त हो पाएँगे?)! एक अल्पकालिक धारा जिसे सर्वोच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीश स्थायित्व प्रदान करने का प्रयास कर रहे हैं।

मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को सर्वोच्च न्यायालय को इस मामले को अन्य राज्य में तबादला करने का अनुमति देने की राजनीतिक निर्णय करना पड़ेगा। यह खतरे से खाली नहीं है क्योंकि इस समयलोकप्रियता कमहो रही है और उनके खिलाफ उनकी पार्टी में लोग आवाज़ उठा रहे हैं। दो वर्षों तक वह अपने पारिवारिक सीट अनंतनाग में चुनाव करवाने में असफल रही और अंततः अपने भाई कोविधान परिषद्के रास्ते से विधायक बनवाना पड़ा। उनके भाई की राजनीतिक प्रतिष्ठा ना के बराबर है और वह केवल एकभावुक सहाराहै जिससे कोई लाभ नहीं होगा।

जब तबादले का मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय में आएगा तब सर्वोच्च न्यायालय राज्य एवं केंद्र सरकारों से उनकीरायमांगेगा। केंद्र सरकार भले ही तबादले में कोई आपत्ती ना करे पर वह न्यायालय से यह मांग जरूर करेगी कि मुकदमा दर्ज किए वकीलों के बताए गए राज्य को ना चुनकर कोई अन्य राज्य चुना जाए। हम जानते हैं कि हत्याकांड की जांच राज्य ही करता है और जम्मू-कश्मीर प्रशासन इस मामले को स्वयं सुलझाने का इच्छुक है.

लायर्स कलेक्टिव, नामक एनजीओ ने काफी पापड़ बेले ताकि वह स्वयं पीड़ित के परिवार की ओर से मुकदमा लड़ सके। यही वकील मुकदमे को अन्य राज्य में तबादला करवाने की कोशिश कर रहे हैं और उन्हे अपने पसंद के राज्य में तबादला करवाने का मौका नहीं देना चाहिए!

महबूबा मुफ्ती के लिए चीजें और भी जटिल हैं, 1947 के बादपहली बारऐसा हो रहा है जब जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री से अनुमती देने को कहा जा रहा है, ना कि किसी केंद्रीय कानून को राज्य में लागू करने को लेकर, बल्कि राज्य के अधिकार किसी दूसरे राज्य के न्यायालय कोसमर्पितकरने को कहा गया है! राज्य के मुख्य न्यायाधीश, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय इस मुकदमे की बाग-डोर देगा, फैसला करेंगे कि कौन से न्यायाधीश इसकी सुनवायी करेंगे और आगे की करवाही वही न्यायाधीश करेंगे। उनका निर्णय बहुतअहमहोगा।

महबूबा मुफ्ती को न्यायालय में यह कबूलना होगा कि उनका प्रशासन जम्मू कश्मीर में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष सुनवाई कराने मेंअसमर्थहै। इससे उनकी सरकार परअभियोग या कलंकलग जाएगा।

यदि सर्वोच्च न्यायालय ने बढ़ती भावनाओं को नज़र में रखते हुए सुनवाई का तबादला करने का फैसला किया, तो वह राज्य के अधिकारों कोबड़ा धक्का होगा, जिसका आगेसकारात्मकपरिणाम आएगा। जम्मू कश्मीर के बाहर मुकदमा दर्ज करना आरोपियों को लाभदायक होगा जिन्हें अभिजात वर्ग के लोगों द्वारा तिरस्कार का पात्र बनाया गया है। इस तिरस्कार अभियान से तर्कपूर्ण रूप से मामले से निपटना मुश्किल होगा और प्रशासन में व्याप्त कुप्रथा को सामने नहीं ला पाएंगे।

निष्पक्ष वातावरण आरोपियों के लिए अनुकूल होगा। 16 अप्रैल 2018 को न्यायाधीश ने राज्य अपराध शाखा कोअधूरा चार्जशीटदाखिल करने के लिए फटकारा। हत्याकांड जनवरी में हुआ, और क्रमिक जांच (जिसमें जांचकर्ता को श्रीनगर केइच्छानुसारबदला गया) को तीन महीनों में संपन्न किया गया, ये ही नहीं बल्कि बलात्कार एवं हत्याकांड की विस्तृत जानकारी मीडिया और सोशल मीडिया में दी गयी, फिर चार्जशीट के अधूरे रहने की कोई वजह ही नहीं थी।

कठुआ हत्याकांड (अभी तक यह साबित नहीं हुआ है कि उस बच्ची का बलात्कार हुआ था) न्यायाधीश बी. एच. लोया हत्याकांड की याद दिलाता है।

माननीय न्यायाधीश ने अपराध शाखा को आरोपियों को चार्जशीट की प्रतिलिपि ना देने के लिए भी फटकार लगाई। आरोपियों ने नारको परीक्षण की मांग की जो प्रत्यक्ष रूप सेबेगुनाहीका सबूत है। आरोपियों की एक ही मांग है – कि मामले की जांचसीबीआआईकरे। इसी से जुड़ी एक समस्या है जम्मू के हिंदू इलाकों में रोहिंग्या मुसलमानों की अवैध घुसपेट जिससे हिंदुओं को उन इलाकों कोछोड़कर जानापड़ रहा है। जम्मू में इसके खिलाफ आवाज उठाई जा रही है।

कठुआ हत्याकांड (अभी तक यहसाबित नहीं हुआहै कि उस बच्ची का बलात्कार हुआ था) न्यायाधीश बी. एच. लोया हत्याकांड कीयाददिलाता है। न्यायधीश की मृत्यु दिसंबर 2014 में हुई परंतु कुछ लोगों ने 2016 में ही उनकी मृत्यु के जांच की मांग की और 2017 में उनकी मृत्यु को इन्हीं लोगों ने हत्या करार दिया।

इस घटना को अंतरराष्ट्रीय करने की जल्दबाजी सेषड्यंत्रकारियों की पहुंचका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। यूएन के महासचिव के प्रवक्तास्टीफन दूजार्रीक(अप्रैल 14) ने नयी दिल्ली से कठुआ बलात्कार एवं हत्याकांड में आरोपियों को कड़ी सज़ा दिलवाने की मांग की है।

यह आश्चर्यजनक है। यूरोप मेंअवैध घुसपैठिएआये दिन बलात्कार कर रहे हैं परंतु यूएन के महासचिव उस बारे मेंचुप्पी साधेहुए हैं। इसके बावजूद उनके प्रवक्ता ऐसे मामले में भाषण दे रहे हैं जिस कांड को स्पष्ट रूप से कर्नाटक चुनावों को नज़र में रखते हुए राजनीतिक लाभ उठाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। निष्पक्ष जांच से पता चल जाएगा कि यह विकृतिकृत अपराध है, एक ऐसे प्रकार के अपराध का पीड़ायुक्त आंकड़ा जो राष्ट्रीय महामारी बन चुका है।

महबूबा मुफ्ती, जिन्होंने मामले पर नज़दीकी से नज़र रखी और जिन्हें जांचकर्ताओं को बदले जाने, ताकिनिर्णय को अपने हिसाब से लाया जा सके, के बारे में भी जानकारी थी, अबसंकटमें हैं। वह उन्हीं के खड़ी की गई आंधी की चपेट में हैं!

उन्हें इस बात का ध्यान रखना होगा कि न्यायालय में मामले को सही तरीके से पेश किया जाए और यदि दूसरे राज्य में तबादला हुआ तो जम्मू कश्मीर के संप्रभुता पर आंच ना आए। अंतिम निर्णय अब सर्वोच्च न्यायालय के हाथ में है और यदि उन्होंने तबादले का फैसला किया है तो वह राज्य सरकार के विरोध से खुश नहीं होंगे।

Note:

1. The views expressed here are those of the author and do not necessarily represent or reflect the views of PGurus.

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Sandhya Jain is a writer of political and contemporary affairs. A post graduate in Political Science from the University of Delhi, she is a student of the myriad facets of Indian civilisation. Her published works include Adi Deo Arya Devata. A Panoramic View of Tribal-Hindu Cultural Interface, Rupa, 2004; and Evangelical Intrusions. Tripura: A Case Study, Rupa, 2009. She has contributed to other publications, including a chapter on Jain Dharma in “Why I am a Believer: Personal Reflections on Nine World Religions,” ed. Arvind Sharma, Penguin India, 2009.
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