मसौदा समीक्षा करने के लिए श्री रामास्वामी मयप्पन का बहुत धन्यवाद – लेखक
हिंदू व्यक्तिगत कानून जीवन, विवाह, उत्तराधिकार, संरक्षण और दत्तक-ग्रहण जैसे हिंदुओं के व्यक्तिगत और पारिवारिक क्षेत्रों के निम्नलिखित पहलुओं को नियंत्रित करता है।
आज कल कानूनी व्यवस्था में हिंदुत्व भय की लहर दौड़ रही है। शायद यह बात आप को क्रूर लगे परंतु यहाँ हम आपको दो ऐसे उदाहरण देंगे जिससे यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि न्याय व्यवस्था हिंदुत्व भय और लव जिहाद को बड़ावा दे रही है। (नयनाबेन फिरोजखान पठान वी पटेल शांताबेन भिकाभाई और 4 अन्य, 30 अगस्त 2017, बालचंद जयरामदास लालवंत बनाम नाजनीन खालिद कुरेशी 6 मार्च 2018)
समान नागरिक संहिता तो अब तक पारित नहीं किया गया परंतु हिंदू व्यक्तिगत कानून पर तलवार ज़रूर लटक रही है!
भारत में कानून सभी धर्मों को अपने व्यक्तिगत क्षेत्रों में व्यक्तिगत कानून बनाने की एवं उनका पालन करने की छूट दी गई है। परंतु इन व्यक्तिगत कानूनों को संविधान के दायरे में रहना ज़रूरी है। हिन्दुओं के व्यक्तिगत एवँ परिवारिक मामलों में, जैसे विवाह, उत्तराधिकार, गोद लेना और संरक्षण, पर हिंदू व्यक्तिगत कानून लागू होते हैं.
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के तहत वारिसी के सारे मामलों का निर्णय किया जाता है। कानूनी तौर पर जैन, बौद्ध व सिख समुदाय के लोग भी हिन्दू माने जाते हैं और अधिनियम भी इस बात की पुष्टि करता है। अधिनियम के हिसाब से यह नागरिक हिंदू नहीं माने जाते : “कोई व्यक्ति जो मुसलमान, ईसाई, ज्यू या पारसी धर्म का पालन करनेवाला है”।
यदि हिंदू धर्म परिवर्तन कर ले फिर वह हिंदू नहीं रहता और हिंदू व्यक्तिगत कानून उस पर लागू नहीं होता। धर्म परिवर्तन के बाद एक व्यक्ति पर हिंदू और साथ ही मुस्लिम या क्रिश्चियन कानून नहीं लगाया जा सकता। क्यूंकि दो परस्पर विरोधी कानून लागू करने से केवल विवेकहीन और विवादित हालात ही पैदा होंगे। अधिनियम भी इस बात पर जोर देता है।
क्या अनुभाग (2) शीर्षक “अधिनियम के आवेदन” इसकी अनुमती देता है? ऐसे बेबुनियाद पठन के किस्से, अधिनियम और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के विपरीत, आज कल बहुत ज्यादा हो रहे है?
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, अनुभाग (2) शीर्षक “अधिनियम के आवेदन” में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि कौन हिंदू नहीं है जैसे हमने पहले ही बताया और उनको इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया है। यह अनुभाग इस बात की भी पुष्टि करता है कि यह नियम सिर्फ हिन्दुओं पर लागू होता है। जब यह अधिनियम लागू करने का समय आता है (माता-पिता, दादा-दादी या परदादा-दादी के स्वर्ग सिधारने पर) तब उत्तराधिकारी या उत्तराधिकारियों का (श्रेणी I, श्रेणी II आदि रूप से वर्गीकृत किये गये हैं) हिंदू होना महत्त्वपूर्ण है ताकि उन्हे संपत्ति मिल सके।
तीन पीढ़ियों तक यह संपत्ति का बटवारा किया जा सकता है। यह बटवारा परिवार के आकार व बनावट पर निर्भर करता है। यह मुमकिन है कि कोई उत्तराधिकारी ने धर्म परिवर्तन किया हो पर उसके वारीसों ने धर्म परिवर्तन ना करते हुए हिंदू ही हो। इस लिए अधिनियम के अनुभाग (26) “धर्म परिवर्तनकर्ता के वारिस निरर्हित” शीर्षक में यह स्पष्ट किया गया है कि इन वारीसों का भी संपत्ति पर कोई हक नहीं है। यह अनुभाग बिल्कुल साफ और स्पष्ट है ताकि इसके निर्वचन में कोई गड़बड़ न हो।
यदि हम यह मानकर चले कि अनुभाग 26, न्यायालय जो दावा कर रहे हैं उसके अनुकूल है, फिर भी यह बात समझ के बाहर है कि कैसे एक अनुभाग जिसका कार्य क्षेत्र सीमित है (जो सिर्फ निरर्हितता की बात करता है) वह पूरे अधिनियम पर हावी हो जाता है और एक अनुभाग जो स्पष्टीकरण के लिए ही बनाया गया है उसे ही पुनः निर्धारित कैसे कर सकता है? क्या एक व्यक्ति जो हिंदू है और एक व्यक्ति जो हिंदू था उन दोनों में कोई अन्तर नहीं? ऐसे बेबुनियाद एवं बेतुकी बनावट सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष को खुश रखने के लिए किया गई है ऐसे प्रतीत होता है।
अधिनियम में स्पष्टीकरण के बावजूद, हाल ही में गुजरात उच्च न्यायालय (2017) और मुंबई उच्च न्यायालय, कुछ पूर्व उच्च न्यायालयों के उदहारण के चलते (ध्यान रहे इनमें से कोई भी सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व उदाहरण पर निर्भर नहीं है), ने यह फैसला सुनाया के इस अनुभाग में पहली एवं उनके वारीसों से सम्बंधित सारे संभव अयोग्यता का पुष्टिकरन करता है। याद दिला दें कि अनुभाग का शीर्षक “धर्म परिवर्तनकरता के वारिस निरर्हित” है, पर माननीय न्यायालयों ने इसे “अयोग्यता” करार दिया है।
न्यायालय ने यह तर्क दिया कि बेटे या बेटी का रिश्ता धर्म परिवर्तन से खत्म नहीं हो जाता। तो क्या पोते-पोती या पर-पोते/पोती का नाता खत्म हो जाता है? क्या यह रिश्ते नाते भी पैदाइशी नहीं होते?
फिर क्या धर्म परिवर्तित व्यक्ति को संपत्ति देने से उसके वर्जित (अनुभाग 26 के अंतर्गत) वारिसों को भी यह संपत्ति प्राप्त नहीं होगी? क्या ऐसा करना ना केवल कानून का हनन बल्कि घोर अन्याय भी नहीं होगा? क्या जो नागरिक मुसलमान या ईसाई नहीं है उनको संवैधानिक संरक्षण एवं न्याय का अधिकार नहीं है?
माननीय न्यायालयों ने ये भी कहा कि धर्म परिवर्तन करने के बावजूद वे (बेटा और बेटी) लोग जन्म से हिंदू ही है। क्या अनुभाग (2) शीर्षक “अधिनियम के आवेदन” इसकी अनुमती देता है? ऐसे बेबुनियाद पठन के किस्से, अधिनियम और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के विपरीत, आज कल बहुत ज्यादा हो रहे है? खास तौर पर हिंदुत्व भय के इस वातावरण में? यदि इस पर रोक नहीं लगाई गयी तो यथार्थ समानता (यदि अब भी बची हुई है तो) संकट में आ जाएगी! सर्वोच्च न्यायालय ने श्रीमति सरला मुद्गल, अध्यक्ष, कल्याणी एवं अन्य बनाम भारत सरकार एवं अन्य के मामले में यह फैसला सुनाया कि, “विवाह, धर्म परिवर्तन,उत्तराधिकार, तलाक सभी उतने ही धार्मिक है जितने की धर्म से जुड़ी अन्य बातें“। न्यायपालिका संविधान एवं यथार्थ न्याय के आधीन है ना कि उनसे ऊपर! “न्याय करना अवश्यक है और न्याय किया जा रहा है यह स्पष्ट भी होना चाहिए” यह कहावत है। लगता है यह कहावत केवल हिंदुओं के लिए लागू नहीं होती!
क्या माननीय न्यायालय सभी धर्म परिवर्तित व्यक्तियों (हिंदू धर्म से) को हिन्दू रीतियों से विवाह करने को कहेंगे क्योंकि वे जन्म से हिंदू थे?
किसी भी तरह धर्म परिवर्तित हिंदुओं को हिन्दू घोषित करना उनके वर्तमान धर्म का अपमान है और इसे उनके धार्मिक स्वतंत्रता अधिकार को असंवैधानिक घोषित करने के बराबर समझा जा सकता है।
ऊपर दिए गए निर्णयों से धर्म परिवर्तित नागरिकों को ना केवल हिंदू व्यक्तिगत कानून का बल्कि उनके परिवर्तित धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों का भी लाभ दिया जा रहा है। इस से एक नयी श्रेणी के विशेषाअधिकृत नागरिक पैदा हो गए हैं। यह संविधान में दिए गए समानता के वादे (पर अमल नहीं किया गया) के विरुद्ध है।
“अधिनियम के आवेदन” का अनुभाग अक्षरशः हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की प्रतिलिपि है। क्या माननीय न्यायालय सभी धर्म परिवर्तित व्यक्तियों (हिंदू धर्म से) को हिन्दू रीतियों से विवाह करने को कहेंगे क्योंकि वे जन्म से हिंदू थे? हिंदू विवाह अधिनियम पति या पत्नी के धर्म परिवर्तन के आधार पर भी तलाक देने की अनुमति देता है। अनुभाग 13(ii) में कहा गया है कि “पति या पत्नी धर्म परिवर्तन करने की वजह से हिंदू नहीं रहे”। इससे अधिनियम के इरादे और उसकी भाषा बहुत ही साफ है और संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं।
इसे हम व्यक्ति के सन्यास लेने पर उसकी कानूनन मृत्यु से जोड़ सकते हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा “किसी व्यक्ति का सन्यास लेना उसके कानूनी तौर पर मृत्यू के समान है जिससे वह अपने सभी संबंधों से और संपत्ति से पूर्णतः विभाजित हो जाता है। वह या उसके रिश्तेदार संपत्ति के उत्तराधिकारी नहीं रहते“। (श्री कृष्णा सिंह बनाम मथुरा अहीर एवं अन्य 1979)। हिंदू धर्म छोड़ दूसरे धर्म को अपनाना भी कानूनन मृत्यु के समान ही है।
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